प्रागैतिहासिक ल
पुरापाषाण काल
संभवतया 500000 वर्ष पूर्व द्वितीय हिम के प्रारंभ काल में भारत में मानव का अस्तित्व प्रारंभ हुआ। कुछ विद्वानों के अनुसार मानव का अस्तित्व सर्वप्रथम दक्षिण भारत में हुआ जहां सेेे वह उत्तर-पश्चिमी पंजाब गया। परंतु कुछ अन्य इतिहासका अनुसार मानव अस्तित्व का प्रारंभ सर्वप्रथम सिंधु और झेलम नदी केेे उत्तर पश्चिम केेे पंजाब प्रदेश और जम्मूू में हुआ । तत्पश्चा मानव इस युग में गंगा यमुना के दोआब को छोड़कर राजपूतानाा, गुजरात , बंगाल ,बिहार,उड़ीसा और संपूर्ण दक्षिण भारत में फैल गया। भारत के इन विभिन्न स्थानों पर इस युग के मानव द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले हथियार प्राप्त हुए हैं। अनुमानतय यह युग ईसा पूर्व 25000 वर्ष पूर्व तक माना गया है।
पुरापाषाण काल को भी अब तीन भागों में विभक्त किया गया है १- पूर्व पुरापाषाण काल-पूर्व पुरापाषाण काल के अवशेष उत्तर पश्चिम के सोहन क्षेत्र (सोहन सिंधु नदी की एक सहायक नदी थी) मैं प्राप्त हुए हैं। इस काल के अवशेष नर्मदा नदी तथा उसकी सहायक नदियों की घाटियों में प्राय आधे दर्जन स्थानों में प्राप्त हुए हैं। नर्मदा नदी की घाटी में नरसिंहपुर और नर्मदा नदी के निकट ही मध्य प्रदेश में भीमबेटिका की गुफाओं में इस समय के अवशेष पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध किए जा चुके हैं।
२- मध्य पुरापाषाण काल- इस काल के अवशेष सिंध राजस्थान मध्य भारत ओडिशा और आंध्र उत्तरी महाराष्ट्र कर्नाटक और गुजरात के विभिन्न क्षेत्रों में पाए गए हैं।
३- उत्तर पुरापाषाण काल -इस समय के अवशेष हाल ही में इलाहाबाद की बेलन घाटी आंध्र प्रदेश के बेटमचेली तथा कर्नाट के शोलापुर और बीजापुर जिलों में प्राप्त हुए हैं।
इस युग में मानव ने क्वार्टजाइट नामक कठोर पत्थर के हथियार बनाएं जो बहुत ही साधारण और भद्दे थे। यह मानव द्वारा हथियारों के प्रयोग का प्रारंभ था इस युग में मानव खेती करना अथवा अपने लिए निवास गृह बनाना नहीं जानता था। बेन नदियों अथवा झीलों के किनारे या गुफाओं में रहता था वह फल खाकर अथवा मछली या अन्य पशुओं का शिकार करके उनके मांस से अपना पेट भरता था। आग जलाना नहीं जानता था इस युग के प्रारंभ में उसे वस्त्रों का ज्ञान भी नहीं था। वह नग्न रहता था यद्यपि बाद की समय में उसने पहले पेङो के पत्तों से और तत्पश्चात पशुओं की खाल से उसने अपने शरीर को ढकना आरंभ कर दिया। उसे कोई मृतक संस्कार नहीं आता था। अपितु मृतकों को यथावत छोड़ दिया जाता था। परंतु हिंसक पशुओं से अपनी रक्षा करने के लिए उसमें मिलजुल कर रहने की भावना थी। कुछ गुफाओं में पशुओं की आकृतियों की रेखाएं मिली है जो कला के प्रति मनुष्य की सहज रुचि का प्रमाण है।
परंतु 1970-74 ई० के मध्य में गंगा नदी के मैदान में भी मध्य पाषाण कालीन संस्कृति के अवशेष विभिन्न स्थानों पर पर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हुए हैं। इस काल में भी मानव का मुख्य पेशा शिकार करना था। कृषि कार्य और निवास ग्रहों का निर्माण अभी आरंभ नहीं हुआ था। परंतु इस काल के मानव ने अपने मित्र को को भूमि में गाड़ना आरंभ कर दिया था। कुत्ता उसका पालतू पशु बन गया था संभवतया बाद के समय में उसने मिट्टी के बर्तन बनाना भी आरंभ कर दिया था।
इस काल में मानव ने पर्याप्त प्रगति की। उसके हथियार तांबे की बनाए जाने लगे जो नुकीले और तीक्ष्ण होते थे। इस युग में मानव रहने के लिए गांव और नगर बसाता था। कृषि के द्वारा विभिन्न प्रकार के अनाज उत्पन्न करता था, पशु पालन करता था, कपड़ा बनाना, कपड़ा बनाना जान गया था, ऊनी और सूती वस्त्रों का प्रयोग करता था, जीवन स्तर को उन्नतशील बना चुका था दैनिक आवश्यकताओं किराने की वस्तुओं का निर्माण कर चुका था, आवागमन के साधनों में वृद्धि कर चुका था अर्थात एक वाक्य में उन सभी साधनों को जन्म दे चुका था जिन पर सभ्यता और संस्कृति की प्रगति निर्भर करती है। यद्यपि इस समय के इतिहास के बारे में जानने के साधन अधिक उपलब्ध नहीं है तब भी कुछ साधन उपलब्ध हो गए हैं और भविष्य में उंर में वृद्धि होने की पर्याप्त आसा हैं .|
पुरापाषाण काल को भी अब तीन भागों में विभक्त किया गया है १- पूर्व पुरापाषाण काल-पूर्व पुरापाषाण काल के अवशेष उत्तर पश्चिम के सोहन क्षेत्र (सोहन सिंधु नदी की एक सहायक नदी थी) मैं प्राप्त हुए हैं। इस काल के अवशेष नर्मदा नदी तथा उसकी सहायक नदियों की घाटियों में प्राय आधे दर्जन स्थानों में प्राप्त हुए हैं। नर्मदा नदी की घाटी में नरसिंहपुर और नर्मदा नदी के निकट ही मध्य प्रदेश में भीमबेटिका की गुफाओं में इस समय के अवशेष पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध किए जा चुके हैं।
२- मध्य पुरापाषाण काल- इस काल के अवशेष सिंध राजस्थान मध्य भारत ओडिशा और आंध्र उत्तरी महाराष्ट्र कर्नाटक और गुजरात के विभिन्न क्षेत्रों में पाए गए हैं।
३- उत्तर पुरापाषाण काल -इस समय के अवशेष हाल ही में इलाहाबाद की बेलन घाटी आंध्र प्रदेश के बेटमचेली तथा कर्नाट के शोलापुर और बीजापुर जिलों में प्राप्त हुए हैं।
इस युग में मानव ने क्वार्टजाइट नामक कठोर पत्थर के हथियार बनाएं जो बहुत ही साधारण और भद्दे थे। यह मानव द्वारा हथियारों के प्रयोग का प्रारंभ था इस युग में मानव खेती करना अथवा अपने लिए निवास गृह बनाना नहीं जानता था। बेन नदियों अथवा झीलों के किनारे या गुफाओं में रहता था वह फल खाकर अथवा मछली या अन्य पशुओं का शिकार करके उनके मांस से अपना पेट भरता था। आग जलाना नहीं जानता था इस युग के प्रारंभ में उसे वस्त्रों का ज्ञान भी नहीं था। वह नग्न रहता था यद्यपि बाद की समय में उसने पहले पेङो के पत्तों से और तत्पश्चात पशुओं की खाल से उसने अपने शरीर को ढकना आरंभ कर दिया। उसे कोई मृतक संस्कार नहीं आता था। अपितु मृतकों को यथावत छोड़ दिया जाता था। परंतु हिंसक पशुओं से अपनी रक्षा करने के लिए उसमें मिलजुल कर रहने की भावना थी। कुछ गुफाओं में पशुओं की आकृतियों की रेखाएं मिली है जो कला के प्रति मनुष्य की सहज रुचि का प्रमाण है।
मध्य पाषाण काल
ईस्वी पूर्व प्रायः 25000 वर्ष पूर्व मानव ने अपने पत्थर के हथियारों में कुछ साधारण सुधार करने में सफलता प्राप्त की और उनके साथ साथ पशुओं की हड्डियों सबने हुए हथियारों का प्रयोग भी आरंभ किया। यह मध्य पाषाण काल का प्रारंभ था। इस स्थिति में मानव प्रायः ईस्वी पूर्व 5000 शताब्दी तक रहा। इस काल में मानव ने क्वार्टजाइट पत्थर के स्थान पर अधिकांशतया जैस्पर, चर्ट और ब्लडस्कोन नामक पत्थर का प्रयोग प्रारंभ किया और अपने हथियार इन्हीं पत्थरों से बनाएं। इन हथियारों का आकार 1 इंच से अधिक ना था परंतु अब इन्हें लकड़ी के हत्थे में लगाकर प्रयोग में लाया जाना आरंभ किया गया । इस काल में भी मानव जीवन के अवशेष भारत में प्रायः अनेक स्थानों पर पाए गए हैं। इन स्थानों में अभी तक पश्चिमी बंगाल में वीरभानपुर, गुजरात में लंघनज, तमिलनाडु में टहरी समूह, मध्य प्रदेश में आजमगढ़ और राजस्थान में नागौर प्रमुख थे।परंतु 1970-74 ई० के मध्य में गंगा नदी के मैदान में भी मध्य पाषाण कालीन संस्कृति के अवशेष विभिन्न स्थानों पर पर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हुए हैं। इस काल में भी मानव का मुख्य पेशा शिकार करना था। कृषि कार्य और निवास ग्रहों का निर्माण अभी आरंभ नहीं हुआ था। परंतु इस काल के मानव ने अपने मित्र को को भूमि में गाड़ना आरंभ कर दिया था। कुत्ता उसका पालतू पशु बन गया था संभवतया बाद के समय में उसने मिट्टी के बर्तन बनाना भी आरंभ कर दिया था।
उत्तर पाषाण काल
ईस्वी पूर्व 5000 वर्ष से पूर्व प्रायः ई० पूर्व 3000 वर्ष या उससे भी अधिक समय तक का काल इस में सम्मिलित किया जाता है। संपूर्ण भारत में इस काल के अवशेष प्राप्त हुए हैं जो कोलकाता ,मद्रास ,मैसूर हैदराबाद के अजायबघरों में सुरक्षित है। मानव ने इस काल में तीव्रता से प्रगति की। यद्यपि उसके हथियार पत्थर के ही थे परंतु उन्हें नुकीला और पोलीस करके चमकीला बना दिया गया था। शस्त्रों की संख्या में वृद्धि कर ली गई थी और विभिन्न कार्यों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के हथियार प्रयोग में लाए जाने लगे थे। इस काल में मानव ने कृषि और पशुपालन आरंभ कर दिया था। उसने अपने लिए निवास गृह बनाने आरंभ कर दिए थे और वह चर्म अथवा अन्य प्रकार के वस्त्र भी बनाने लगा था। वह मिट्टी के अच्छे बर्तन बनाने लगा था।। उसे आग जलाना भी आ गया था। और वह खाने को पका कर खाने लगा था। संभवतया मानव ने इस समय कुम्हार का चाक और लकड़ी का पहिया बनाना भी सीख लिया था। वह शवों को गाड़ता अथवा जलाता था। उसने धर्म और देवी तथा दानवी शक्तियों की कल्पना करना आरंभ कर दिया था। यद्यपि कुछ विद्वान इस बात में संदेह करते हैं कि इस काल में मानव ने चित्र बनाने आरंभ कर दिया था, परंतु अधिकांश यह विश्वास करते हैं कि मानव ने चित्रकारी आरंभ कर दी थी और अनेक रेखाचित्रों को इस युग का ही स्वीकार किया गया है।
तांबे और कांसे का काल
अनुमानतया यह युग ईस्वी पूर्व 3000 वर्ष से ईस्वी पूर्व 1000 वर्ष अथवा उससे भी थोड़ा आगे के समय तक रहा। कुछ विद्वानों के अनुसार दक्षिण भारत में तो यह युग आया ही नहीं। उनके अनुसार उत्तर पाषाण काल के पश्चात ही दक्षिण भारत में लौह युग आरंभ हो गया।। परंतु अब नवीन खोजो से उपलब्ध सामग्री से यह प्रमाणित हो गया है कि दक्षिण भारत भी कुछ क्षेत्रों में तांबे का प्रयोग आरंभ हुआ था। इस कारण दक्षिण भारत भी तांबे के योग से गुजरा यह मान्य है। यद्यपि यह भी प्रमाणित हो चुका है है कि भारत एक ऐसा देश रहा है जिसने लोहे के युग को आरंभ किया और यह क्रिया आर्यो के भारत में आगमन से पहले आरंभ हो चुकी थी परंतु ताम्र काल में भी पत्थर के हथियार का प्रयोग चलता रहा जिसके कारण एक ऐसा काल भी माना गया है जिसे ताम्र पाषाण काल के नाम से पुकारा गया है। किसी काल से मनुष्य ने कुछ स्थानों पर तांबे और टिन या कुछ अन्य धातुओं से मिलाकर कैसा बनाना आरंभ किया गया जिसके कारण यह उन स्थानों के लिए कांसा- काल भी कहलाया।इस काल में मानव ने पर्याप्त प्रगति की। उसके हथियार तांबे की बनाए जाने लगे जो नुकीले और तीक्ष्ण होते थे। इस युग में मानव रहने के लिए गांव और नगर बसाता था। कृषि के द्वारा विभिन्न प्रकार के अनाज उत्पन्न करता था, पशु पालन करता था, कपड़ा बनाना, कपड़ा बनाना जान गया था, ऊनी और सूती वस्त्रों का प्रयोग करता था, जीवन स्तर को उन्नतशील बना चुका था दैनिक आवश्यकताओं किराने की वस्तुओं का निर्माण कर चुका था, आवागमन के साधनों में वृद्धि कर चुका था अर्थात एक वाक्य में उन सभी साधनों को जन्म दे चुका था जिन पर सभ्यता और संस्कृति की प्रगति निर्भर करती है। यद्यपि इस समय के इतिहास के बारे में जानने के साधन अधिक उपलब्ध नहीं है तब भी कुछ साधन उपलब्ध हो गए हैं और भविष्य में उंर में वृद्धि होने की पर्याप्त आसा हैं .|
लौह-काल
पूर्व वैदिक काल में आर्यों को लोहे का ज्ञान नहीं था परंतु उत्तर वैदिक काल में आर्यों को लोहे का ज्ञान हो गया था। इस कारण अभी तक यह माना जा रहा था कि भारत में लोहे का ज्ञान प्रायः 1000 ईस्वी पूर्व हो गया था। परंतु नवीन पुरातात्विक खोजों से यह ज्ञात हुआ की हड़प्पा सभ्यता के विनाश हो जाने के पश्चात भी भारत के भीतरी भागों में ग्राम्य सभ्यताएं विभिन्न स्थानों पर विकसित हो रही थी और उनमें से कुछ के निवासियों को लोहे का ज्ञान था। इस कारण अब यह माना गया है कि भारत में लोहे का ज्ञान संभवतया आर्यों के आगमन से पहले हो चुका था। ऐसी स्थिति में भारत में लोहे के ज्ञान का समय 1000 ईस्वी पूर्व से पहले का माना जाता है यद्यपि उसका समय निश्चित नहीं किया जा सका है। उस समय से आधुनिक समय तक लौह काल को माना जाता है।
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