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भारत में वर्ण व्यवस्था का इतिहास


वर्ण व्यवस्था का इतिहास 





उत्तर वैदिक काल में कई सामाजिक परिवर्तन हुए। समाज में विभाजन तीखा हो चला। वर्ण व्यवस्था सुदृढ़ हुई। 
आश्रम व्यवस्था शुरू हुई। संयुक्त परिवार विघटित होने लगे, स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आई। शिक्षा का विशिष्टीकरण हुआ।
वर्ण व्यवस्था

ऋग्वैदिक काल की वर्ग व्यवस्था वर्ण व्यवस्था में परिवर्तित हो गई। कुछ प्राचीन ग्रंथों में वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय माना गया है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के अनुसार विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, बाहुओं क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और पैरों से शूद्र हुए। बाद में विराट पुरुष का स्थान ब्रह्मा ने ले लिया, परंतु इन वर्णों की उत्पत्ति का सिद्धांत वही रहा‌।
कुछ वर्ण का अर्थ रंग से लेते हैं। इस आधार पर तो प्रारंभ में केवल दो ही वर्ण थे-े एक गोरे आर्यों का और दूसरा काले अनार्यों का। 2 फिर 4 वर्ण  कैसे बने वर्ण का अर्थ वरण करना या चुनना भी है। इस अर्थ के आधार पर कहा गया है कि जिस व्यक्ति ने जो धंधा चुन लिया उसके अनुसार उसका वर्ण निर्धारित हो गया। यही मत उचित प्रतीत होता है। प्राचीन दर्शन तथा धर्म ग्रंथों में अनगिनत बार उल्लेख किया गया है कि यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय या शूद्र कर्म से बना है, न की जन्म से। वास्तव में प्रारंभ में वर्ण कर्म और गुण के आधार पर ही बने थे।
चार वर्ण-आर्थिक परिवर्तनों से सामाजिक जीवन प्रभावित हुआ। ऋग्वेद में 4 वर्णो का उल्लेख अवश्य आता है किंतु उस युग में वर्ण व्यवस्था में जटिलता न आयी थी। उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था की बुनियादें दृढ़ हो गई थी। आर्थिक जीवन के विकास और कार्यों के विशेषीकरण ने इस प्रक्रिया को और अधिक बल दिया।

ब्राह्मण -ज्ञानार्जन तथा उसका वितरण ब्राह्मण का प्रमुख कर्तव्य माना गया था। वेद पढ़ना तथा पढ़ाना, इंद्रियों का दमन कर त्याग व तपस्या द्वारा समाज के समक्ष उच्च आदर्शों को प्रस्तुत करना ब्राह्मण का प्रमुख धर्म माना गया। वेद ज्ञान या ब्राह्मण ज्ञान का सच्चा अधिकारी होने के कारण ही ब्राह्मण को मनुष्य में श्रेष्ठ माना गया और मोक्ष का अधिकारी माना गया। उत्तर वैदिक काल में ब्राह्मणों की शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। उत्पादन कार्यों से उनका बहुत कम संबंध रह गया। उनका संपूर्ण समय यज्ञ आदि तथा चिंतन में व्यतीत होता था और वे दान-दक्षिणा से अपनी जीविका कमाते थे।
क्षत्रिय-शासन तथा सुव्यवस्था की स्थापना का उत्तरदायित्व क्षत्रियों का था। मनुस्मृति के अनुसार क्षत्रियों का कार्य राज्य की रक्षा करना, अध्ययन करना, दान देना तथा यज्ञ आदि करना है। उत्तर वैदिक काल में क्षत्रियों ने शस्त्र को ही अपनी जीविका का साधन बनाया। इस काल में क्षत्रियों ने दर्शन और वेदों के अध्ययन में भी रुचि दिखाई। अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि क्षत्रियों ने ज्ञान तथा विद्वता के आधार पर ब्राह्मणों के सामान स्थान प्राप्त कर लिया था। उत्तर वैदिक काल के उत्तरार्द्ध मैं क्षत्रियों को भी समाज में सम्मान प्राप्त होने लगा।
वैश्य-समाज के भरण पोषण का उत्तरदायित्व वैश्यों का माना गया था। समाज के आर्थिक विकास का उत्तरदायित्व उन्हीं पर था। वेदाध्ययन व्यापार तथा कृषि कार्य में संलग्न रहना, पशुओं का पालन करना तथा दान देना वैश्य के प्रमुख कर्तव्य निर्धारित किए गए। वैश्य उत्तर वैदिक काल में ऋण भी देते थे और उस पर ब्याज लेते थे। इस काल में ब्राह्मणों और क्षत्रियों से इनका स्थान निम्न था। अलबत्ता धनी वैश्यों का राजघरानों में बड़ा सम्मान था।
शूद्र-सुधरो का कार्य ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य की सेवा करना था। यदि शुद्रो को अन्य वर्णों के यहां कार्य नहीं मिलता तो वे हस्त कौशल से अन्य कार्य करके अपनी आजीविका कमा सकते थे। उत्तर वैदिक काल में शुद्रो को अछूत समझा जाने लगा था। फिर भी लोग शूद्रों की उपयोगिता समझते थे । इसी कारण उत्तर वैदिक काल के उत्तरार्ध में शुद्रो को जीने के अधिकार की मान्यता मिल गई थी, उनको अपनी आर्थिक उन्नति करने का भी अधिकार मिल गया था।

इस काल में समाज अनेक जाति तथा वर्गों में बढ़ चुका था शूद्रों के साथ ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य का खान पान तथा विवाह संबंध नहीं होता था। किंतु ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्यों मैं परस्पर विवाह संबंध चलता था, किंतु धीरे-धीरे वह भी कम होता गया। अन्तर्जातीय विवाह से उत्पन्न संतान को हेय समझा जाता था। जाति परिवर्तन भी संभव था किंतु उस वर्णों के लिए। इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्ण व्यवस्था इस युग में एक दृढ़ आधार पर खड़ी हो गई थी। उच्च जातियों के लिए अनेक पेचीदे आचार नियम बन चुके थे जिनसे दिन-प्रतिदिन निम्न वर्गों से उनका संबंध विच्छेद होता गया। इससे स्पष्ट है कि जाति प्रथा तथा छुआछूत का जन्म उत्तर वैदिक काल में हो गया था।


वर्ण व्यवस्था के मूल सिद्धांत 

वर्ण व्यवस्था श्रम पर आधारित थी । श्रम विभाजन कारण तथा गुण पर आधारित थी, जन्म पर नहीं। इसलिए प्राचीन काल में जिन ब्राह्मणों में  बौद्धिक प्रतिभा नहीं होती थी वे प्रायः क्षत्रियों तथा वैश्यों काम अपना लेते थे। और इसी प्रकार क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र ऋषि अथवा संत बन जाते थे। प्राचीन काल में अनेक वैश्य तथा शुद्रो ने बड़े बड़े राज्य और साम्राज्य कायम की और कुशल शासक और योद्धा  सिद्ध हुए। दूसरा सिद्धांत यह था कि समाज में हर व्यक्ति और वर्ग का व्यक्ति है कि अपनी पूरी शक्ति लगा कर स्वधर्म का पालन करें अर्थात समाज की सेवा करें। तीसरे यह माना जाता था की समाज में हर काम का महत्व है, इसीलिए हर काम को करने वालों का महत्व है। इसीलिए अपने काम तथा सेवा के अनुसार हर व्यक्ति को समाज में उच्च स्थान मिला मिलना चाहिए। चौथे समाज एक अवयवी है इसीलिए उसके विभिन्न अंगों के बीच सहयोग होना चाहिए प्रतियोगिता नहीं।



वर्ण व्यवस्था के गुण 


  1. वर्ण व्यवस्था ने समाज के सभी व्यक्तियों को एक दूसरे के साथ अधिकार और कर्तव्य के बंधन में बांध दिया था।जो एक व्यक्ति का अधिकार था वहीं दूसरे व्यक्ति का कर्तव्य था और बिना अपने कर्तव्य का पालन किए कोई अपने अधिकार का उपयोग नहीं कर सकता था।
  2. वर्ण व्यवस्था से एक बहुत बड़ा लाभ हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रतिभा, योग्यता और मनोवृति के अनुसार अपना कार्यक्षेत्र चुन लेता था और उसी में उसे अधिक से अधिक उन्नति का अवसर प्राप्त हो जाता था का अवसर प्राप्त हो जाता था।
  3. वर्ण व्यवस्था से कार्यकुशलता में वृद्धि हुई एक वर्ण वाले एक ही व्यवसाय करते थे जिससे उनमें वे बड़ी निपुणता प्राप्त कर लेते थे। वास्तव में वर्ण व्यवस्था कार्य विभाजन के सिद्धांत पर आधारित थी। यह विभाजन था-धार्मिक, राजनीतिक तथा आर्थिक। धार्मिक कार्यों में ब्राह्मण अत्यंत निपुण होता था। इसी प्रकार राजनीति की क्षेत्र में क्षत्रिय और अर्थ संबंधी कार्यों में वैश्य सभी अपने अपने क्षेत्र में पंडित होते थे। शूद्र सेवा के कार्यों में अत्यंत कुशल होता था।
  4. वर्ण व्यवस्था के स्थापित हो जाने से समाज में संघर्ष की संभावना बहुत कम हो गई सभी के कार्य निश्चित है और लोग आपस में होड़ नहीं करते थे। बल्कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार अपने व्यवसाय को करता हुआ समाज कल्याण के कार्य में लगा रहता था।
  5. इस व्यवस्था में स्वार्थ अर्थात अपने हित और परार्थ अर्थात लोकहित का सुंदर समन्वय था। इसमें अपनी भलाई के साथ-साथ समाज की भलाई होती थी। व्यक्ति समाज की एक इकाई के रूप में कार्य करता था। उसके कार्यों का प्रभाव ना केवल अपने जीवन पर बल्कि पूरे समाज पर पड़ता था। प्रत्येक व्यक्ति के कार्य में समाज का कल्याण प्रधान और अपना कल्याण गौण रहता था
  6. अतएव व्यवस्था एकता का मिसाल थी। भारतीय समाज की विभिन्नता कि नहीं।वर्ण व्यवस्था ने हमारी सामाजिक तथा सांस्कृतिक परंपराओं की भी रक्षा की है।वर्ण व्यवस्था ने हमारे समाज को एक निश्चित स्वरूप दिया और उस स्वरूप द्वारा हमारी सभ्यता तथा संस्कृति का सृजन किया
  7. वह अवस्था में रक्त शुद्धता बनाए रखने में भी हमारी मदद की है। वास्तव में वर्ण व्यवस्था अन्य उद्देश्यों में एक उद्देश्य यह भी था कि आर्य लोग अपने समूह के रक्त की शुद्धता को बनाए रखें। वास्तव में प्रत्येक वन आपस में विवाह संबंध प्रतिबंधित होते है और इस कारण वर्णों में रक्त की शुद्धता बनी रहती है।


वर्ण व्यवस्था के दोष 

                 

  1. आरंभ में वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म था, जाती नहीं किंतु कालांतर में स्नेह जातिवाद का रूप धारण कर लिया। ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य-यह तीनों वर्ण कभी नष्ट नहीं हुए। इनके लिए वर्ण के स्थान पर जाति शब्द का प्रयोग होने लगा। सबसे अधिक जातियां और समूह में उत्पन्न हुई जिनका संबंध उत्पादन तथा सेवा कार्यों में था जैसे-कृषि पशुपालन, दस्तकारियां इत्यादि। वैदिक तथा बौद्ध साहित्य में व्यवसाय के आधार पर शूद्र वर्ण से उत्पन्न जातियों के नाम मिलते हैं। नाई,बढई, वैद्य, लोहार, चर्मकार, रथकार ,कुम्हार, सूत, कुम्हार, तेली, नट, धोबी, सुनार, जुलाहे, दर्जी इत्यादि। इन जातियों में आर्यों के नहीं बल्कि अनार्य समूह के लोग भी सम्मलित रहे होंगे। जाति व्यवस्था से समाज अनेक जातियों तथा उप जातियों में बट गया। परिणाम स्वरुप समाज में बिखराव तथा कटुता पैदा हुई, जिसे सामाजिक प्रगति में बाधा उत्पन्न हुई, अस्पृश्यता की भावना उत्पन्न हुई जो समाज में कलंक के समान था। इससे समाज में अनेक समस्याएं पैदा हुई।
  2. ब्राह्मणों का महत्व समाज में बहुत बढ़ गया। ब्राह्मणों में कर्मकांड हवन यज्ञ अनुष्ठान पूजा पाठ आदि को बहुत जटिल बना दिया तथा बहुत खर्चीला बना दिया जो साधारण आदमी से परे की चीज हो गई, इससे साधारण समाज उब गया। इसी के प्रतिक्रिया स्वरुप जैन तथा बौद्ध धर्म का जन्म हुआ।लोग हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध तथा जैन धर्म को अपनाने लगे।
  3. वर्ण व्यवस्था में निम्न स्थान शूद्रों का था। इनका कर्तव्य तीनों वर्णों की सेवा करना था। शूद्रों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई। इनका कोई अधिकार नहीं रहा। उनको अपवित्र माना जाता था। शुद्रो को यज्ञ तथा अन्य धार्मिक कार्यों में अछूत समझा जाता था। शुद्र द्वारा स्पर्श की हुई वस्तु ने तो देवताओं पर चढ़ाने योग होती थी और न उसे उच्च वर्ग के लोग खाते थे। इससे छुआछूत को बढ़ावा मिला जिसने समाज में दूषित वातावरण पैदा किया।
  4. वर्ण व्यवस्था के कारण समाज की एकरूपता समाप्त हो गई। और समाज में कटुता तथा संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हुई। इस विविधता तथा बिखराव का विदेशियों ने   ने अनुचित लाभ उठाया। और हमारे देश में विदेशी शासन की स्थापना हुई। विदेशी आक्रमणों के समय ब्राह्मण वैश्य तथा शुद्रो ने यह समझ लिया कि लड़ना तथा देश की रक्षा करना क्षत्रियों का काम है। अतः वह शांत बैठे रहे। इसके परिणाम स्वरुप ही देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ गया| 


वर्ण व्यवस्था का मुल्यांकन 

-वर्ण व्यवस्था अत्यंत प्राचीन एवं सामाजिक पद्धति है। इसलिए इस पर समय-समय पर अनेक स्वदेशी एवं विदेशी विद्वानों और सुधारकों ने भिन्न भिन्न प्रकार के मत व्यक्त किए हैं। कुछ लोग इसका पूर्ण रुप से उन्मूलन करने के लिए विविध प्रकार के तर्क प्रस्तुत करते हैं। और कुछ लोग केवल इसकी उपयोगिता और महत्व का समर्थन करना ही उचित समझते हैं। किंतु दोनों प्रकार के विचार एकांकी और असंतुलित होने के कारण समीचीन प्रतीत नहीं होते हैं। वस्तुतः इसे पूर्ण रूप से निर्दोष मानना अज्ञान का परिचायक है और दूसरी और नितांत निरर्थक घोषित करना भी संकुचित दृष्टिकोण का घोतक है।

धन्यवाद 




















































































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